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toothpaste for dinner

Tuesday, April 20, 2010

इस बस्ती के इक कूचे में

इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना
इक नार पे जान को हार गया, मशहूर है उस का अफसाना

उस नार में ऐसा रूप ना था,  जिस रूप से दिन की धुप दबे 
इस शहर में क्या क्या गोरी है, महताब रुखे गुलनार लबे
कुछ बात थी उस की बातों में, कुछ भेद थे उस के चितवन में
वही भेद के जोत जगाते हैं, किसी चाहने वाले के मन में
उसे अपना बनाने की धुन में, हुआ आप ही आप से बेगाना
इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

न चंचल खेल जवानी के, ना प्यार की अल्हड घातें थी
बस राह में उन का मिलना था और फ़ोन पे उन की बातें थी
इस इश्क पे हम भी हंसते थे, बेहासिल सा बेहासिल था?
इक जोर बिफरते सागर में, ना कश्ती थी ना साहिल था
जो बात थी इन के जी में थी, जो भेद था यक्सर अनजाना
इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

इक रोज़ मगर बरखा रुत में, वो भादों थी या सावन था
दीवार पे बीच सुमंदर के, यह देखने वालों ने देखा
मस्ताना हाथ में हाथ दिए, यह एक कगर पे बैठे थे
यूँ शाम हुई फिर रात हुई,  जब सैलानी घर लौट गए
क्या रात थी वो – जी चाहता है उस रात पे लिखें अफसाना
इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

हाँ उम्र का साथ निभाने के थे अहद बहोत पैमान बहोत
वो जिन पे भरोसा करने में कुछ सूद नहीं, नुकसान बहोत
वो नार यह कह कर दूर हुई –  "मजबूरी साजन मजबूरी"
यह वेह्शत से रंजूर हुए और रंजूरी सी रंजूरी
उस रोज़ हमें मालूम हुआ, उस शख्स का मुश्किल समझाना
इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

गो आग से छाती जलती थी, गो आँख से दरया बहता था
हर एक से दुःख नहीं कहता था, चुप रहता था ग़म सहता था
नादाँ हैं वो जो छेडते हैं , इस आलम में दीवानों को
उस शख्स से एक जवाब मिला, सब अपनों को बेगानों को
“कुछ और कहो तो सुनता हों, इस बाब में कुछ मत फरमाना"
इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

अब आगे का तहकीक नहीं, गो सुनने को हम सुनते थे
उस नार की जो जो बातें थी, उस नार के जो जो किस्से थे
इक शाम जो उस को बुलवाया, कुछ समझाया बेचारे ने
उस रात यह किस्सा पाक किया, कुछ खा ही लिया दुखयारे ने
क्या बात हुई, किस टार हुई? अखबार से लोगों ने जाना
इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

हार बात की खोज तो ठीक नहीं, तुम हम को कहानी कहने दो
उस  नार का नाम मकाम है क्या, इस बात पे पर्दा रहने दो
हम से भी सौदा मुमकिन है, तुम से भी जफा हो सकती है
यह अपना बयाँ हो सकता है, यह अपनी कथा हो सकती है
वो नार भी आखिर पछताई, किस काम का ऐसा पछताना?
इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

2 comments:

Unknown said...

Kya bat kya bat kya bat.....

Unknown said...

kya bat kya bat kya bat