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toothpaste for dinner

Saturday, April 17, 2010

दो बेमाइने ख्याल

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एक
यूँही बेवजह कभी हम खो देते है खुद को उन प्यारी आँखों में,
माइने तब क्या सचमुच सिर्फ माइने रह जाते है लफ़्ज़ों के,
और क्या ऐसे लम्हों में माइनों की ज़रूरत होती है?
क्या नहीं माइनों के आगे, उफक तक लफ्ज़ अपने परों पर उड़ा ले जाते?
क्यों ना महसूस करें कभी बेमाइने लफ़्ज़ों की उड़ान को?
...मैं भी औ' तुम भी

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दो 
है आगाज़ इश्क का
क्यों खौफज़दा  हो
मर्ज़ बढ़ जाने दीजिए
और मज़ा आएगा
सीने में अपने कोई
दर्द अभी उठा कहाँ हैं
दिल को टूट जाने दीजे
दर्द हद से गुजर जायेगा

शेख तुम्हारी बातों में
है किस इन्साफ का चर्चा
मैं देखता रहा,  
वो नज़रें झुकी रही
इससे आगे भी
क्या और क़यामत आएगा
मर्ज़ बढ़ जाने दीजिए
और मज़ा आएगा

शबनम जो कतरा कतरा
पलकों पे सजी रही है
एक दौर सा लम्बा
सैलाब यहाँ आएगा
मर्ज़ बढ़ जाने दीजिए
और मज़ा आएगा

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