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Wednesday, June 1, 2011

सत्य

   खुद के सत्य से हर कोई मिल चूका होता है, कभी तो, कहीं तो. उसके प्रति एक मूक स्वीकृति होती हैं. एक अगाध प्रेम होता हैं. ऐसा प्रेम जो सिर्फ उस सत्य से किया जा सकता हैं. बहोत ही सूक्ष्म, पावन और रहस्यमय. उसी सत्य को हम जीवन भर आकार देने की कोशिश करते रहते हैं. कभी किसी व्यक्ति के रूप में, कभी किसी चीज अथवा क्रिया के रूप में.

  योगी हो, भोगी हो, राजा हो या रंक हर कोई उसी सत्य का मूर्तरूप देखना चाहता हैं. इसका लोभ किसी के बन जाने या बिगड़ जाने की सबसे बड़ी वजह होता है. हर व्यक्ति के दुनिया का केंद्र बिंदु होता है ये सत्य. एक धुरी जिसके चारों और  व्यक्ति की दुनिया बनती, सँवरती, बिगडती और फिर बनती रहती हैं.
 

 

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