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toothpaste for dinner

Friday, April 18, 2014

आशना

किस्मत रिसॉर्ट्स का पिछला अहाता एक बेहद खुबसूरत और बिना भीड़भाड़ वाले बीच पर खुलता हैं, ये देखकर पिछले छः घंटों के सफर की थकान  वो पल भर में भूल गयी. रूम में अपनी बैग्स लगा कर वो बीच पर चली आई.  शाम  का वक़्त हो  चला था और सूरज अपनी सुनहरी धुप का लबादा ओढ़े समंदर में आधा उतर चूका था।  

आशना, अपने बालों में समंदर से बहकर आती थकान भुला देने वाली हवाओं को महसूस करती हुयी, काफी देर तक बैठी रही. ठंडी सफेद रेत का अपने तलवो में चुभना उसे काफी अच्छा लग रहा था. दूर तक बीच पर उसके अलावा कोई नहीं था. 

खुद के लिए कलकत्ता से कोंकण तक के सफर में इतना लम्बा सुकूनभरा लम्हा उसे कहीं अब जाकर मिला था. पुराने मोहल्ले के तंग गलियो से शुरू हुआ उसका पूरा सफर उसके सामने से गुजर रहा था. सफर का हर छोटा मकाम, हर इंसान जो उसे सफर  में मिला, हर तजुर्बा, हर  एहसास,  नयी आवाज़ें, ज़बानें सब कुछ उसकी नज़रों के सामने से गुजरने लगा. 

पुराने मोहल्ले की तंग गलियों से झाँकता आसमान कितना बेतरतीब नज़र आता था, यहाँ कितना खुला आज़ाद लगता है? अजीब सवालों  के जवाब, मायने, वजहों के दिलकश जाल बुनती वो अपने आप पर मुस्कुरा रही थी. अजीब ख्यालों में उलझते हुए अचानक ही आशना ने अपने मायने पा लिये। अचानक उसे अपने लिए, अपने आसपास की हर शह के लिए बेइंतहा मुहब्बत महसूस होने लगी . 

अचानक वो "आशना" हो गयी