घड़ी कि सुई अटक गई हैं शायद,
जब भी देखता हूँ,
समझ ही नहीं आता,
वक़्त गुजर रहा हैं,
या रेंघ रहा हैं,
केंचुलें कि तरह,
वक़्त गुजर रहा हैं,
या रेंघ रहा हैं,
केंचुलें कि तरह,
आहिस्ता आहिस्ता
रेत पर एक लक़ीर छोड़ता हुआ,
वही का वही, बरसों से,
उन्ही यादों कि झुरमुट में,
उम्मीदों कि गर्म तपती रेत पर,
तड़पता रहता हैं वक़्त,
यही दम तोड़ देगा शायद,
आहिस्ता आहिस्ता
आहिस्ता आहिस्ता
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