Monday, February 13, 2012

दर्द घटता नहीं हैं

दर्द घटता नहीं हैं, रेल की आती जाती तेज धडधड़ाहट में भी  बड़ी शिद्दत से महसूस होता रहता है. कई सौ लोग उस स्टेशन पर और उनसे उभरती एक अंतहीन झुँजूलाहट, एक सुरहीन सा शोर. गर्मी, प्यास और स्टेशन के आसपास लगे होर्डिंगस पर सजे इश्तेहार सब कुछ उसे उसके अभाव की याद दिला रहे है.
वो बारिश भरी सुबह को याद करने की कोशिश करता हैं. कुछ यादें कितनी भी पुरानी हो जाये, दर्द पर हमेशा मरहम का ही काम करती है.
माथे के बल अचानक ही कम होने लगते है. भीड़, गर्मी, प्यास, झुँजूलाहट, शोर सभी धुन्दलाने लगते हैं. धुन्दलाती नज़रों में शोभा का चेहरा उभरने लगता है. बारिश में भीगी शोभा, शोभा के गेसुवों से टपकती मोती सी बूँदें उसकी अधखुली नज़रों में भरने लगती है. उसके चेहरे पर मुस्कान छलक आती है.
बम्बई जाने वाली ट्रेन के लिए होती कर्कश announcement इस मरीचिका फिर से न जाने किस धुएं में छिपा देती है. अब शोभा नहीं है, ना उसके गेसू, ना उनसे टपकती बूँदें. फिर से उसका गला सूखने लगा है. मगर उठकर पानी के नलके तक जाने की ताकत उसमें बची नहीं हैं. वो नलके को दूर से ही ताकता रहता है. 
वो शोभा की यादों को पीछे नहीं छोड़ना चाहता हैं, एक बार फिर सारी ज़िन्दगी एक लम्हें में समेट लेने की ख्वाइश, दर्द घटता नहीं हैं.
उसे काम से देर रात लौटना याद आता हैं, उसके कदमों की आहट नहीं सुनती, शोभा सोती कहाँ थी? अबके भी वो जायेगा तो वो जाग रही होगी...

स्टेशन पर एक सुबह जाग रही थी.

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